जीवित्पुत्रिका व्रत कथा एवं विधि सहित हिन्दी में

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जीवित्पुत्रिका व्रत कथा एवं विधि सहित हिन्दी में



















































































 

 

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा एवं विधि सहित हिन्दी में ।। Jivitputrika Vrat Katha And Vidhi in Hindi.

 

 



मित्रों, अश्विन माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी से नवमी तिथि तक मनाए जाने वाले त्योहार को जिवतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत कहा जाता है । इसे कुछ क्षेत्रीय स्थानों पर जिउतिया के नाम से भी जाना जाता है । अपने संतान की लंबी आयु और मंगलकामना के लिए यह व्रत रखा जाता है ।।

यह व्रत बिलकुल निर्जला रहकर किया जाता है इसलिये इसे निर्जला ही किया जाना चाहिये । यह देश के पूर्वी और उत्तरी राज्यों में ज्यादातर मनाया जाता है । बिहार और यूपी में इसे बड़े स्तर पर मनाया जाता है ।।

इस बार जितिया 2 अक्टूबर को मनाया जाएगा । व्रत के एक दिन पहले नहाय खाय और व्रत के बाद पारण होता है । यानी व्रत के पहले दिन नहाय खाय, दूसरे दिन निर्जला व्रत और तीसरे दिन पारण होता है ।।


जितिया व्रत के एक दिन पहले ही व्रत के नियम शुरू हो जाते हैं । व्रत से एक दिन पहले यानी सप्तमी के दिन नहाय खाय का नियम होता है । बिल्कुल छठ की तरह ही जिउतिया में नहाय खाय होता है । इस दिन महिलाएं सुबह-सुबह उठकर गंगा अथवा नदी स्नान करती हैं और भगवान एवं अपने इष्ट का पूजा करती हैं ।।

नहाय खाय के दिन सिर्फ एक बार ही भोजन करना होता है । इस दिन सात्विक भोजन किया जाता है । बिहार में शाम को पकवान बनाया जाता है और रात को सतपूतिया या झिंगनी की सब्जी जरूर खाई जाती है । कुछ स्थानों पर नहाय खाय के दिन मछली खाने की परंपरा भी है । ऐसी मान्यता है, कि मछली खाकर जितिया व्रत रखना शुभ होता है ।।

नहाय खाय की रात को छत पर जाकर चारों दिशाओं में कुछ खाना रख दिया जाता है । ऐसी मान्यता है, कि यह खाना चील व सियारिन के लिए रखा जाता है । व्रत के दूसरे दिन को खुर जितिया कहा जाता है । इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और अगले दिन पारण तक कुछ भी अर्थात जल तक भी ग्रहण नहीं करतीं हैं ।।

व्रत तीसरे और आखिरी दिन पारण किया जाता है । जितिया के पारण के नियम भी अलग-अलग जगहों पर भिन्न हैं । कुछ क्षेत्रों में इस दिन नोनी का साग, मड़ुआ की रोटी आदि खाई जाती है ।।

जितिया के दिन महिलाएं स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं और जीमूतवाहन की पूजा करती हैं । पूजा के लिए जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित की जाती हैं । मिट्टी तथा गाय के गोबर से चील व सियारिन की भी मूर्ति बनाई जाती है ।।

फिर इनके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है । पूजा समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है । पारण के बाद पंडित या किसी जरूरतमंद को दान और दक्षिणा दिया जाता है । जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है । संक्षेप में वह इस प्रकार है-

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा ।। Jivitputrika Vrat Katha.

गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था । वे बड़े उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था ।।

वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए । वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया । एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी ।।

इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है । पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है । आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है ।।

जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा । आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ।।

इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए । नियत समय पर गरुड बड़े वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए ।।

अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बड़े आश्चर्य में पड गए । उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा । जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया ।।

गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए । प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया ।।

इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन के पूजा की प्रथा शुरू हो गई । आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं ।।

कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं, कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है ।।

व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है । यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है ।।


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