अभिषेक - राजतिलक का स्नान जो राज्यारोहण को वैध करता था। पुराने काल मैं जब किसी को राजा बनाया जाता था तो उस के सिर पर अभिमन्त्रित जल और औषधियों की वर्षा की जाती थी। इस क्रिया को ही अभिषेक कहते है। अभि उपसर्ग और सिंच् धातु कि सन्धि से अभिषेक शब्द बना है। कालांतर में राज्याभिषेक राजतिलक का पर्याय बन गया।
साहित्य में अभिषेक
अथर्ववेद में अभिषेक शब्द कई स्थलों पर आया है और इसका संस्कारगत विवरण भी वहाँ उपलब्ध है। कृष्ण यजुर्वेद तथा श्रौत सूत्रों में हम प्राय: सर्वत्र "अभिषेचनीय" संज्ञा का प्रयोग पाते हैं जो वस्तुत: राजसूय का ही अंग था, यद्यपि ऐतरेय ब्राह्मण को यह मत संभवत: स्वीकार नहीं। उसके अनुसार अभिषेक ही प्रधान विषय है।
ऐतरेय ब्राह्मण ने अभिषेक के दो प्रकार बतलाए हैं:
(1) पुनरभिषेक (अष्टम 5-11);
(2) ऐंद्र महाभिषेक (अष्टम, 12-20)।
इनमें से प्रथम का राजसूय से संबंध जान पड़ता है, न कि यौवराज्य अथवा सिंहासनग्रहण से। ऐंद्र महाभिषेक अवश्य इंद्र के राज्याभिषेक से संबंधित है। उक्त ब्राह्मण ग्रंथ में ऐसे सम्राटों की सूची भी दी हुई है जिनका अभिषेक वैदिक नियम से हुआ था। ये हैं:
(1) जन्मेजय पारीक्षित, तुर कावशेय द्वारा अभिषिक्त,
(2) शार्यात मानव, च्यवन भार्गव द्वारा अभिषिक्त,
(3) शतानीक सात्राजित, सोम शष्मण वाजरत्नायन द्वारा अभिषिक्त,
(4) आंबष्ठय, पर्वत और नारद द्वारा अभिषिक्त,
(5) युंधाश्रुष्ठि औग्रसैन्य, पर्वत और नारद द्वारा अभिषिक्त,
(6) विश्वकर्मा च्यवन, कश्यप द्वारा अभिषिक्त,
(7) सुदास पैजवन, वसिष्ठ द्वारा अभिषिक्त,
(8) मरुत्त अविच्छित्त, संवर्त आंगिरस द्वारा अभिषिक्त,
(9) अंग उद्मय आत्रेय,
(10) भरत दौष्यंत, दीर्घतमस यायतेय।
निम्नांकित राजा केवल सस्कार के ज्ञान से विजयी हुए:
(1) दुर्मुख पांचाल, बृहसुक्थ से ज्ञान पाकर,
(2) अत्यराति जानंतपि (सम्राट् नहीं) वसिष्ठ सातहव्य से ज्ञान पाकर।
इन सूचियों के अतिरिक्त कुछ अन्य सूचियाँ प्रसिद्ध पाश्चात्य तत्वज्ञ गोल्डस्टूकर ने दी हैं। आगे चलकर महाभारत में युधिष्ठिर के दो बार अभिषिक्त होने का उल्लेख मिलता है, एक सभापर्व (200,33,45) और दूसरा शांतिपर्व, 100,40 में।
मौर्य सम्राट् अशोक के संबंध में हम यह जानते हैं कि उसे यौवराज्य के पश्चात् चार वर्ष अभिषेक की प्रतीक्षा करनी पड़ी थी और इसी प्रकार हर्ष शीलादित्य को भी, जैसा "महावंश" एवं युवान च्वांग के "सि-यूकी" नामक ग्रंथों से ज्ञात होता है। कालिदास ने भी रघुवंश के द्वितीय सर्ग में अभिषेक का निर्देश किया है। ऐतिहासिक वृत्तांतों से ज्ञात होता है कि आगे चलकर राजसचिवों के भी अभिषेक होने लगे थे। हर्षचरित में "मूर्धाभिषिक्ता अमात्या राजान:" इस प्रकार का संकेत पाया जाता है। आगे चलकर अनेक ऐतिहासिक सम्राटों ने प्राय: वैदिक विधान का आश्रय लेकर अभिषेक क्रिया संपादित की, क्योंकि उसके बिना सम्राट् नहीं माना जाता था। अभिषेक के कतिपय अन्य सामान्य प्रयोगों में प्रतिमाप्रतिष्ठा के अवसर पर उसका आधान एक साधारण प्रक्रिया थी जो आजकल भी हिंदुओं में भारत एवं नेपाल में प्रचलित है।
एक विशिष्ट अर्थ में अभिषेक का प्रयोग बौद्ध "महावस्तु" (प्रथम 124.20) में हुआ है जहाँ साधना की परिणति दस भूमियों में अंतिम "अभिषेक भूमि" में बतलाई गई है।
अभिषेक का विधान
वैदिक एवं उत्तर वैदिक साहित्य में अभिषेक का जो विधान दिया गया है वह निम्नलिखित है। प्राय: अभिषेक के समय, उसके कुछ पहले, अथवा उसके बीच में सचिवों की नियुक्ति होती थी और इसी प्रकार अन्य राजरत्नों का निर्वाचन भी सम्पन्न होता था जिनमें साम्राज्ञी, हस्ति, श्वेतवाजि, श्वेतवृषभ मुख्य थे। उपकरणों में श्वेतछत्र, श्वेतचामर, आसन (भद्रासन), सिंहासन, भद्रपीठ, परमासन, स्वर्णविरचित एवं अजिनआवृत तथा मांगलिक द्रव्यों में स्वर्णपात्र (अनेक स्थानों से लाए गए जल से भरे), मधु, दुग्ध, दधि, उदुंबरदंड एवं अन्य वस्तुएँ रखी जाती थीं। भारतीय अभिषेकविधान में जिस उच्च कोटि के मांगलिक द्रव्य और उपकरण प्रयुक्त होते थे वैसे प्राचीन ईसाइयों अथवा सामी (सेमेटिक) राज्यारोहण की क्रियाओं में नहीं होते थे। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि अभिषेक एक सिद्धांत प्रक्रिया के रूप में केवल इसी देश की स्थायी संपत्ति है, अन्य देशों में इस प्रकार के सिद्धांत इतने अस्पष्ट और उलझे हुए हैं कि उनका निश्चयात्मक सिद्धांत-स्वरूप नहीं बन पाया है; यद्यपि शक्तिसाधना और ऐश्वर्य की कामना रखनेवाले सभी सम्राटों ने किसी न किसी रूप में स्नान, विलेपन को प्रतीक का रूप देकर इस संस्कार का आश्रय लिया है।
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