गरुड़ पुराण वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित एक महापुराण है। यह सनातन धर्म में मृत्यु के बाद सद्गति प्रदान करने वाला माना जाता है। इसलिये सनातन हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण के श्रवण का प्रावधान है। इस पुराण के अधिष्ठातृ देव भगवान विष्णु हैं। इसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, निष्काम कर्म की महिमा के साथ यज्ञ, दान, तप तीर्थ आदि शुभ कर्मों में सर्व साधारण को प्रवृत्त करने के लिये अनेक लौकिक और पारलौकिक फलों का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें आयुर्वेद, नीतिसार आदि विषयों के वर्णनके साथ मृत जीव के अन्तिम समय में किये जाने वाले कृत्यों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आत्मज्ञान का विवेचन भी इसका मुख्य विषय है।
अठारह पुराणों में गरुड़महापुराण का अपना एक विशेष महत्व है। इसके अधिष्ठातृदेव भगवान विष्णु है। अतः यह वैष्णव पुराण है। गरूड़ पुराण में विष्णु-भक्ति का विस्तार से वर्णन है। भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन ठीक उसी प्रकार यहां प्राप्त होता है, जिस प्रकार 'श्रीमद्भागवत' में उपलब्ध होता है। आरम्भ में मनु से सृष्टि की उत्पत्ति, ध्रुव चरित्र और बारह आदित्यों की कथा प्राप्त होती है। उसके उपरान्त सूर्य और चन्द्र ग्रहों के मंत्र, शिव-पार्वती मंत्र, इन्द्र से सम्बन्धित मंत्र, सरस्वती के मंत्र और नौ शक्तियों के विषय में विस्तार से बताया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में श्राद्ध-तर्पण, मुक्ति के उपायों तथा जीव की गति का विस्तृत वर्णन मिलता है।
'गरूड़पुराण' में उन्नीस हजार श्लोक कहे जाते हैं, किन्तु वर्तमान समय में उपलब्ध पाण्डुलिपियों में लगभग आठ हजार श्लोक ही मिलते हैं। गरुडपुराण के दो भाग हैं- पूर्वखण्ड तथा उत्तरखण्ड। पूर्वखण्ड में २२९ अध्याय हैं (कुछ पाण्डुलिपियों में २४० से २४३ तक अध्याय मिलते हैं)। उत्तरखण्ड में अलग-अलग पाण्डुलिपियों में अध्यायों की सख्या ३४ से लेकर ४९ तक है। उत्तरखण्ड को प्रायः 'प्रेतखण्ड' या 'प्रेतकल्प' कहा जाता है। इस प्रकार गरुणपुराण का लगभग ९० प्रतिशत सामग्री पूर्वखण्ड में है और केवल १० प्रतिशत सामग्री उत्तरखण्ड में। पूर्वखण्ड में विविध प्रकार के विषयों का समावेश है जो जीव और जीवन से सम्बन्धित हैं। प्रेतखण्ड मुख्यतः मृत्यु के पश्चात जीव की गति एवं उससे जुड़े हुए कर्मकाण्डों से सम्बन्धित है।
सम्भवतः गरुणपुराण की रचना अग्निपुराण के बाद हुई। इस पुराण की सामग्री वैसी नहीं है जैसा पुराण के लिए भारतीय साहित्य में वर्णित है। इस पुराण में वर्णित जानकारी गरुड़ ने विष्णु भगवान से सुनी और फिर कश्यप ऋषि को सुनाई।
पहले भाग में विष्णु भक्ति और उपासना की विधियों का उल्लेख है तथा मृत्यु के उपरान्त प्रायः 'गरूड़ पुराण' के श्रवण का प्रावधान है। दूसरे भाग में प्रेत कल्प का विस्तार से वर्णन करते हुए विभिन्न नरकों में जीव के पड़ने का वृत्तान्त है। इसमें मरने के बाद मनुष्य की क्या गति होती है, उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है, प्रेत योनि से मुक्त कैसे पाई जा सकती है, श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा नरकों के दारूण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है।
कथा एवं वर्ण्य विषय
महर्षि कश्यप के पुत्र पक्षीराज गरुड़ को भगवान विष्णु का वाहन कहा गया है। एक बार गरुड़ ने भगवान विष्णु से मृत्यु के बाद प्राणियों की स्थिति, जीव की यमलोक-यात्रा, विभिन्न कर्मों से प्राप्त होने वाले नरकों, योनियों तथा पापियों की दुर्गति से संबंधित अनेक गूढ़ एवं रहस्ययुक्त प्रश्न पूछे। उस समय भगवान विष्णु ने गरुड़ की जिज्ञासा शान्त करते हुए उन्हें जो ज्ञानमय उपदेश दिया था, उसी उपदेश का इस पुराण में विस्तृत विवेचन किया गया है। गरुड़ के माध्यम से ही भगवान विष्णु के श्रीमुख से मृत्यु के उपरान्त के गूढ़ तथा परम कल्याणकारी वचन प्रकट हुए थे, इसलिए इस पुराण को ‘गरुड़ पुराण’ कहा गया है। श्री विष्णु द्वारा प्रतिपादित यह पुराण मुख्यतः वैष्णव पुराण है। इस पुराण को 'मुख्य गारुड़ी विद्या' भी कहा गया है। इस पुराण का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने महर्षि वेद व्यास को प्रदान किया था। तत्पश्चात् व्यासजी ने अपने शिष्य सूतजी को तथा सूतजी ने नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषि-मुनियों को प्रदान किया था।
पूर्वखण्ड
इस खण्ड को आचार खण्ड भी कहते हैं। इस खण्ड में सबसे पहले पुराण को आरम्भ करने का प्रश्न किया गया है, फिर संक्षेप से सृष्टि का वर्णन है। इसके बाद सूर्य आदि की पूजा, पूजा की विधि, दीक्षा विधि, श्राद्ध पूजा नवव्यूह की पूजा विधि, वैष्णव-पंजर, योगाध्याय, विष्णुसहस्त्रनाम कीर्तन, विष्णु ध्यान, सूर्य पूजा, मृत्युंजय पूजा, माला मन्त्र, शिवार्चा गोपालपूजा, त्रैलोक्यमोहन, श्रीधर पूजा, विष्णु-अर्चा पंचतत्व-अर्चा, चक्रार्चा, देवपूजा, न्यास आदि संध्या उपासना दुर्गार्चन, सुरार्चन, महेश्वर पूजा, पवित्रोपण पूजन, मूर्ति-ध्यान, वास्तुमान प्रासाद लक्षण, सर्वदेव-प्रतिष्ठा पृथक-पूजा-विधि, अष्टांगयोग, दानधर्म, प्रायश्चित-विधि, द्वीपेश्वरों और नरकों का वर्णन, सूर्यव्यूह, ज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र, स्वरज्ञान, नूतन-रत्न-परीक्षा, तीर्थ-महात्म्य, गयाधाम का महात्म्य, मन्वन्तर वर्णन, पितरों का उपाख्यान, वर्णधर्म, द्रव्यशुद्धि समर्पण, श्राद्धकर्म, विनायकपूजा, ग्रहयज्ञ आश्रम, जननाशौच, प्रेतशुद्धि, नीतिशास्त्र, व्रतकथायें, सूर्यवंश, सोमवंश, श्रीहरि-अवतार-कथा, रामायण, हरिवंश, भारताख्यान, आयुर्वेदनिदान चिकित्सा द्रव्यगुण निरूपण, रोगनाशाक विष्णुकवच, गरुणकवच, त्रैपुर-मंत्र, प्रश्नचूणामणि, अश्वायुर्वेदकीर्तन, औषधियों के नाम का कीर्तन, व्याकरण का ऊहापोह, छन्दशास्त्र, सदाचार, स्नानविधि, तर्पण, बलिवैश्वदेव, संध्या, पार्णवकर्म, नित्यश्राद्ध, सपिण्डन, धर्मसार, पापों का प्रायश्चित, प्रतिसंक्रम, युगधर्म, कर्मफ़ल योगशास्त्र विष्णुभक्ति श्रीहरि को नमस्कार करने का फ़ल, विष्णुमहिमा, नृसिंहस्तोत्र, विष्णवर्चनस्तोत्र, वेदान्त और सांख्य का सिद्धान्त, ब्रह्मज्ञान, आत्मानन्द, गीतासार आदि का वर्णन है।
अध्याय 1 पहले भाग में भगवान विष्णु की भक्ति की विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें भक्ति ज्ञान, वैराग्य, सदाचार एवं निष्काम कर्म की महिमा, यज्ञ, दान, ताप, तीर्थसेवन, देव पूजन, आदि वर्णन है। इसके साथ इसमे व्याकरण, छंद, ज्योतिष , आयुर्वेद, रत्न सार , नीति सार का उल्लेख है।
उत्तरखण्ड
इस खण्ड को प्रेतकल्प भी कहते हैं। ‘प्रेत कल्प’ में पैंतीस अध्याय हैं। इन अध्यायों में मृत्यु का स्वरूप, मरणासन्न व्यक्ति की अवस्था, तथा उनके कल्याण के लिए अंतिम समय में किए जाने वाले क्रिया-कृत्य का विधान है। यमलोक, प्रेतलोक और प्रेत योनि क्यों प्राप्त होती है, उसके कारण, दान महिमा, प्रेत योनि से बचने के उपाय, अनुष्ठान और श्राद्ध कर्म आदि का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसमें भगवान विष्णु ने गरुण को यह सब भी बताया है कि मरते समय एवं मरने के तुरन्त बाद मनुष्य की क्या गति होती है और उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है।
गरुड़ पुराण के अनुसार जिस समय मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, उस समय वह बोलने का यत्न करता है लेकिन बोल नहीं पाता। कुछ समय में उसकी बोलने, सुनने आदि की शक्ति नष्ट हो जाती हैं। उस समय शरीर से अंगूठे के बराबर आत्मा निकलती है, जिसे यमदूत पकड़ यमलोक ले जाते हैं। यमराज के दूत आत्मा को यमलोक तक ले जाते हुए डराते हैं और उसे नरक में मिलने वाले दुखों के बारे में बताते हैं। यमदूतों की ऐसी बातें सुनकर आत्मा जोर-जोर से रोने लगती है। यमलोक तक जाने का रास्ता बड़ा ही कठिन माना जाता है। जब जीवात्मा तपती हवा और गर्म बालू पर चल नहीं पाती और भूख-प्यास से व्याकुल हो जाती है, तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे बढ़ने के लिए कहते हैं। वह आत्मा जगह-जगह गिरती है और कभी बेहोश हो जाती है। फिर वो उठ कर आगे की ओर बढ़ने लगती है। इस प्रकार यमदूत जीवात्मा को यमलोक ले जाते हैं।
इसके बाद उस आत्मा को उसके कर्मों के हिसाब से फल देना निश्चित होता है। इसके बाद वह जीवात्मा यमराज की आज्ञा से फिर से अपने घर आती है। इस पुराण में बताया गया है कि घर आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में फिर से प्रवेश करना चाहती है लेकिन यमदूत उसे अपने बंधन से मुक्त नहीं करते और भूख-प्यास के कारण आत्मा रोने लगती है। इसके बाद जब उस आत्मा के पुत्र आदि परिजन अगर पिंडदान नहीं देते तो वह प्रेत बन जाती है और सुनसान जंगलों में लंबे समय तक भटकती रहती है। गरुड़ पुराण के अनुसार, मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए।
यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन फिर से आत्मा को पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह भूख-प्यास से तड़पती 47 दिन तक लगातार चलकर यमलोक पहुंचती है। गरुड़ पुराण अनुसार बुरे कर्म करने वाले लोगों को नर्क में कड़ी सजा दी जाती है, जैसे लोहे के जलते हुए तीर से इन्हें बींधा जाता है। लोहे के नुकीले तीर में पाप करने वालों को पिरोया जाता है। कई आत्माओं को लोहे की बड़ी चट्टान के नीचे दबाकर सजा दी जाती है। किस आत्मा को क्या सजा मिलनी है ये उसके कर्म निश्चित करते है।
नरक यात्रा
जिस प्रकार चौरासी लाख योनियाँ हैं, उसी प्रकार चौरासी लाख नरक भी हैं, जिन्हें जीव अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। ‘गरुड़ पुराण’ ने इसी स्वर्ग-नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है।
‘प्रेत कल्प‘ में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और सम्बन्धियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताड़ित करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है। जो व्यक्ति दूसरों की सम्पत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राह्मण अथवा मन्दिर की सम्पत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का विक्रय करता है; माता, बहन, पुत्री, पुत्र, स्त्री, पुत्रबधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है और उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीवित रहते भी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषि की हानि, सन्तान मृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है, जो धर्म का आचारण और नियमों को पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे ‘अकाल मृत्यु’ में धकेल देते हैं।
प्रेत योनि से बचने के उपाय
‘गरुड़ पुराण’ में प्रेत योनि और नरक में पड़ने से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक प्रमुख उपाय दान-दक्षिणा, पिण्डदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं।
एक तरफ गरुड पुराण में कर्मकाण्ड पर बल दिया गया है तो दूसरी तरफ ‘आत्मज्ञान’ के महत्त्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसे अपने मन और इन्द्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकाण्ड पर सर्वाधिक बल देने के उपरान्त ‘गरुड़ पुराण’ में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकाण्ड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है।
गरूड पुराण श्लोक
1- ये हि पापरतास्तार्क्ष्य दयाधर्मविवर्जिताः।
दुष्टसंगाश्च सच्छास्त्रसत्सङ्गतिपराडंमुखाः।।
अर्थात- हे मानव उस नरक में ऐसे-ऐसे मनुष्य जाते हैं,जो पापकर्म में लीन रहते है,तथा दया-धर्म से रहित है,दुष् पुरूषों के साथी है,शास्त्र तथा सत्संगति से पराङ्मुख है।
गरूड पुराण श्लोक
2- आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।
आसुरं भावमापन्ना दैवीसम्पद् विवर्जिताः ।।
अर्थात- जो यह सोचता है कि वह बडा है,यह विचार कर ऐसे अभिमानी किसी को नमस्कार भी नही करते है,धन के मद से युक्त होकर असुरी सम्पदा को प्राप्त होते है, और दैवी सम्पदा से वर्जित रहते हैं।
गरूड पुराण श्लोक
3- अनेकचित्विभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽसुचौ ।।
अर्थात- चित के चलने मात्र से विक्षिप्त है,मोह-जाल से आच्छादित होकर मात्र कामभोग में संलग्न है, ऐसे प्राणी अपवित्र नरक में जाते हैं।
गरूड पुराण श्लोक
4- ये नरा ज्ञानशीलाश्च ते यान्ति परमां गतिम् ।
पापशीला नरा यान्ति दुखेन यमयातनाम ।।
अर्थात- जो पुरूष ज्ञानशील है,वे परमगति को प्राप्त होते है।जो प्राणी पापकर्म में प्रवृत्त है, वे तो दुख से यमयातना को भोगते है।
गरूड पुराण श्लोक
5- सुकृतं दुष्कृतं वाऽपि भुक्त्वा पूर्वं यथाऽर्जितम ।
कर्मयोगात्तदा तस्य कश्चिद् व्याधिः प्रजायते ।।
अर्थात- सुकृत या दुष्कृत भोगकर अर्जित कर्म के कारण वृद्धावस्था में व्याधि उत्पन्न होती है ।
गरूड पुराण श्लोक
6- यत्राप्यजातनिर्वेदो म्रियमाणः स्वयम्भृतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ।।
अर्थात- अन्तकाल में भी उसे वैराग्य उत्पन्न नहीं होता और जिसका उसने पालन किया था, वे पुत्रादि उसका पालन करने लगते हैं,और ऐसी अवस्था में उसे नेत्र से दिखता नहीं, कान से सुनाई नही देता ,दांत गिर जाते है अतः वह ऐसी अवस्था को प्राप्त हो मरणोन्मुख होते है।
गरूड पुराण श्लोक
7- वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते ।।
अर्थात- प्राणवायु निकलते समय आंखे उलट जातीषहै,कफ के अधिक होने से नाडी सब बन्द-सी हो जाती है,खांसी और श्वास के समय परिश्रम से कण्ठ में घुर-घुर शब्द होने लगता है।
गरूड पुराण श्लोक
8- एवं कुटम्बभरणे व्यापृतात्माऽजितेन्द्रियः ।
म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयास्तधीः ।।
अर्थात- यावज्जीवन पर्यन्त कुटुम्बके भरण पोषण में आसक्तचित्त और अजितेन्द्रिय ऐसा पुरूष मरण समय की वेदना से मूर्छित हो बंधुजन के रुदन करते मृत्यु को प्राप्त होता है।
गरूड पुराण श्लोक
9- स्वस्थानाच्चलिते श्वासे कल्पाख्यो ह्यातुरक्षणः ।
शतवृश्चिकदंष्द्स्य या पीडा साऽनुभूयते ।।
अर्थात- उस समय अपने स्थान से प्राण के चलने पर एक क्षण भी कल्पप्रमाण हो जाता है,और सौ बिच्छुओं के डंक मारने से जो वेदना होती है,ऐसी वेदना उस समय उसको होती है।
गरूड पुराण श्लोक
10- षडशीतिसहस्त्राणि योजनानां प्रमाणतः ।
यममार्गस्य विस्तारो विना वैतरणीं खग ।।
अर्थात- यमलोक के मार्ग का प्रमाण हे गरुड, वैतरणी नदी को छोडकर छियासी हजार (86000) योजन है।।
गरूड पुराण श्लोक
11- अहन्यहनि वै प्रेतो योजनानां शतद्वयम् ।
चत्वारिंशत तथा सप्त दिवारात्रेण गच्छति ।।
अर्थात- यमलोक के मार्ग में प्रति दिन प्रेत आत्मा दो सौ योजन चलता है,इस प्रकार से सैतालिस (47) दिन में दिन-रात चलकर यमलोक पहुँचता है।
गरूड पुराण श्लोक
12- अतीत्य क्रमशो मार्गे पुराणीमानि षोडश ।
प्रयाति धर्मराजस्य भवनं पातकी जनः ।।
अर्थात- यमलोक के मार्ग में सोलह (16) पुयों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है।
यमलोक मार्ग में सोलह (16) पुरियों के नाम--
1- सौम्यपुर 2- सौरिपुर 3-नगेन्द्रभवन, 4- गन्धर्वपुर 5- शैलागम 6- क्रौंचपुर 7- क्रूरपुर 8- विचित्रभवन 9- बह्वपदपुर 10- दुखदपुर 11- नानाक्रन्दनपुर 12- सुप्तभवन 13- रौद्रपुर 14- पयोवर्षणपुर 15- शीताढ्यपुर 16- बहुभीतिपुर
गरूड पुराण श्लोक
13- शतयोजनविस्तीर्णा पूयशोणितवाहिनी ।
अस्थिवृन्दतटा दुर्गा मांसशीणितकर्दमा ।।
अगाधा दुस्तरा पापैः केशशैवालदुर्गमा ।
महाग्राहसमाकीर्णाशघोरपक्षिशतैर्वृता ।।
अर्थात- वैतरणी नदी सौ योजनविस्तार है,उसमें पूय और रूधिर बहते है ,हड्डी से भरा उसका तट है, मांस और शोणित के कर्दम से युक्त है। और बहुत ऊंची है, मनुष्य तैर नहीं सकते ,केशरूपी शैवाल से दुर्गम है। और बडे बडे मगरमच्छ से भरा है,और अति भयंकर हजारों पक्षियों से सम्पन्न है।
गरूड पुराण श्लोक
14- शोचन्तः स्वानि कर्माणि ग्लानिं गच्छति जन्तवः ।
अतीव दुखसम्पन्नाः प्रयान्ति यममन्दिरम ।।
अर्थात- यमलोक के मार्ग मे प्रेत अत्यन्त दुखी हो अपने किए हुए कर्मों को भोगते हुए पापी यमलोक में आते है।
गरूड पुराण श्लोक
15- तथाऽपि स व्रजन मार्गे पुत्र पौत्र ब्रुवन ।
हा हेति प्ररुदन नित्यमनुतप्यति मन्दधीः ।।
अर्थात- मोह इतना है कि फिर भी मंदबुद्धि पुरुष पुत्र पौत्रों का स्मरण करता हुआ तथा हाहाकार करता और रोता हुआ पश्चाताप करता है।
गरूड पुराण श्लोक
16- मया न दत्तं न हुतं हुताशने तपो न तप्तं त्रिदशो न पूजिताः ।
न तकर्थसेवा विहिता विधानतो देहिन क्वचिन्निस्तर यत त्वया कृतम ।।
अर्थात- दान,अग्नि में हवन,तप,देवतावों की पूजा, विधि-विधान से तीर्थ की सेवा आदि नहि की । हे जीव तुमने निंदनीय कार्य किये है। अतः अब तुम अपने किए हुए दण्ड मार्ग को भोगो ,इस प्रकार आत्मा-आत्मा को सम्बोधन कर उपदेश करता है।
गरूड पुराण श्लोक
17- एवं विलप्य बहुशो संस्मरन पूर्वदैहिकम ।
मानुषत्वं मम कुत इति क्रोशन प्रसर्पति ।।
अर्थात- हे गरूड प्रेत आत्मा अनेक प्रकार से विलाप कर पूर्वजन्म के किए हुए कर्मों को याद करता हुआ ,सोचने लगता है,कि अब मनुष्य जन्म कैसे प्राप्त होगा, यह सोचता हुआ प्रेत आत्मा जाता है।
गरूड पुराण श्लोक
18- क्व धनं क्व सुतो जाया? क्व सुह्रत? क्व च बान्धवाः ।
स्वकर्मोपार्जितं भोक्ता मूढ याहि चिरं पथि ।।
अर्थात- हे मूर्ख तू बेकार चिन्ता करता है, धन, भृत्य, पुत्र, स्त्री, बान्धव ,आदि तुम्हारे कोई भी नहीं।है,जीव अपने किये हुए कर्मों को अपने आप ही भोगता है।
गरूड पुराण श्लोक
19- आबालख्यातमार्गोऽयं नैव मर्त्य श्रुतस्त्वया ।
पुराणसम्भवं वाक्यं किं द्विजेभ्योऽपि न श्रुतम ।।
अर्थात- हे प्रेत आत्म यमलोक मार्ग को तो बालक पर्यन्त समी जानते है,इसको तुमने कैसे नही सुना और पुराणों के वचन भी ब्राह्मणों के पास तूने नहीं सुने क्योंकि पुराणों मे नरकादि का वर्णन बहुत प्रकार से किया है।
गरूड पुराण श्लोक
20- दानं वितरणं प्रोक्तं मुनिमिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
इयं सा तीर्यते यस्मात्स्माद्वैतरणी स्मृता ।।
अर्थात- वैतरणी की परिभाषा देते हुए कहा है कि तत्व के वेत्ता मुनियों ने दान को वितरण कहा है, जिससे यह तैरी जा सकती है----इसीलिए इसका नाम वैतरणी नदी है।
गरूड पुराण श्लोक
21- और्ध्वदैहिकदानानि वायुश्च कर्मभोगाय खेचर ।
यातनादेहमासाद्य सह याम्यैः प्रयाति च ।।
अर्थात- हे गरूड परलोक के निमित्त जिसने दान नही दिया ----वह कष्ट से तथा दृढबन्धन से बंधा हुआ यमलोक को जाता है।
गरूड पुराण श्लोक
22- भो भोः पापा दुराचारा अहङ्कारप्दूषिताः ।
किमर्थमर्जितं पापं युष्माभिरविवेकिभी ।।
अर्थात- हे पापी आत्मा दुराचारी जीव अहंकार युक्त विवेक रहित होकर तुमने पाप रूप धन को इकट्ठा किसलिए किया? क्योंकि ईश्वर के निमित्त धन दान देना था। अपितु संचय नहीं करना था ।
गरूड पुराण श्लोक
23- कामक्रोधाद्युत्पन्नं सङ्गमेन च पापिनाम ।
तत्पापं दुखदं मूढाः किमर्थं चरितं जना ।।
अर्थात- तुमने पापी पुरूषों की संगति से और काम-क्रोधादि से उत्पन्न हुए ऐसे दुख देने वाले पाप को तुमने किसके लिए किया? ।
गरूड पुराण श्लोक
24- ग्रासार्द्धमपि नो दत्तं न श्ववायसयोर्बलिम ।
नमस्कृता नातिथयो न कृतं पितृतर्पणम् ।।
अर्थात- तुमने ग्रास मात्र अन्न दान नहीं किया ,तुमने बलिवैश्वदेवादि भी नही किया,अतिथियों को नमस्कार भी नही किया और पितृतर्पण भी नहीं किया।
गरूड पुराण श्लोक
26- नापि किञ्चित्कृतं तीर्थं पूजिता नैव देवता ।
गृहाश्रमस्थितेनापि हन्तकारोऽपि नोद्धृतः ।।
अर्थात- गृहस्थ धर्म में रहते हुए भी तुमने कोई तीर्थ यात्रा नहीं की, न देवता की पूजा की तथा अहंकार को भी नहीं त्यागा ।
गरूड पुराण श्लोक
27- शुश्रूषिताश्च नो सन्तो भुङ्क्ष्व पापफलं स्वयं ।
यतस्त्वं धर्महीनोऽसि ततः सन्ताड्यसे भृ म ।।
अर्थात- तुमने संत पुरूषो की सेवा नहीं की अब फल भोगो, धर्म से रहित हो,अतः अनेक तरह की हम तुम्हारी ताडना करते है।
गरूड पुराण श्लोक
28- चतुराशीतिलक्षाणि नरकाः सन्ति खेचर ।
तेषां मध्ये घोरतमा धौरेयास्त्वेकविंशतिः ।।
अर्थात- हे गरूड चौरासी लाख नरक होते है,इन्में इक्कीस प्रधान व भयानक नरक है, जो इस प्रकार है---
तामिस्त्र, लोहशंकु, महारौरव, शाल्मली, रौरव, कुड्मल, कालसूत्र, पूतिमृत्तिक , संघात, लोहितोद, सविष, संप्रतापन, महानिरय, काकोल, संजीवन, महापथ, अवीचि, अंधतामिस्त्र , कुंभीपाक, संप्रतापन तथा तपन
ये प्रमुख 21 नरक है।
गरूड पुराण श्लोक
29- यास्तामिस्त्रान्धतामिस्त्ररौरवाद्याश्च यातनाः ।
भुंक्ते नरो वा नारी वा मिथः संगेन निर्मिताः ।।
अर्थात- जो स्त्री तथा पुरूष परस्पर अधिक विषय सेवन से तामिस्त्र, अंधतामिस्त्र, रौरवादि नरक की यातना को भोगते है, इसलिए ऋतुदान और विषय-वासना में लिप्त नहीं होना चाहिए।
गरूड पुराण श्लोक
30- एवं कुटुम्बं बिभ्राण उदरम्भर एव वा ।
विसृज्येहोभयं प्रेत्यभुङ्क्ते तत्फलमीदृशम ।।
अर्थात- अगर कोई पुरूष ईश्वर के निमित्त दान को न कर केवल कुटुम्ब का भरण-पोषण तथा अपने उदर को भरता है, ऐसे पुरूष कुटुम्ब को एवं अपनी देह को छोडकर परलोक में नरकादि के दुखों को भोगते है।
गरूड पुराण श्लोक
31- एकः प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं स्वकलेवरम ।
कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहेण यद्भृतम ।।
दैवेनासादितं तस्य शमले निरये पुमान ।
भुक्तें कुटुम्बपोष्स्य हृतद्रव्य इवातुरः ।।
अर्थात- जिसने अनेक प्राणियों से बैर-भाव करके अपने शरीर का पोषण किया, वह शरीर को त्यागकर कुटुम्ब का पोषण किया, इसी देवप्रेरित पाप का संचय करने से नरक में जीव भोग भोगता है और दुखी होता है।
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